दिल की पीड़ा में हर रोज अब जल रहा
हूँ मैं
प्रेम की आग मे तप के कैसा ढल रहा हूँ
मैं
इतंजार के तीर ने मुझे कर दिया है
घायल
हर पल इश्क से जिंदगी को छल रहा हूँ
मैं
प्रेम से ही मुश्किलों को दूर कर रहा
हूँ मैं
अपनों के बीच में भी कैसे भला डर रहा
हूँ मैं
इस आग में जलने का अब गम नही है मुझे
प्रेम से ही अपनों के कष्टों को हर
रहा हूँ मैं
________________अभिषेक शर्मा
अभि
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